07-04-81  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"मनन शक्ति द्वारा सर्वशक्तियों के स्वरूप की अनुभूति"

आज बापदादा अपने सर्व कल्प पहले वाले सिकीलधे बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। जैसे बाप अति स्नेह से बच्चों को सदा याद करते हैं वैसे ही बच्चे भी सदा बाप को याद करने वा बाप की श्रेष्ठ मत पर चलने में दिन-रात लगे हुए हैं। बापदादा बच्चों की लगन, बच्चों की दिल वा जान, सिक व प्रेम से सदा सेवा में लगन देख सदा ऐसे बच्चों को आफरीन देते हैं। बच्चों का भाग्य के पीछे त्याग देख बापदादा सदा त्याग पर मुबारक देते हैं। सर्व बच्चों का एक ही संकल्प - बाप को प्रत्यक्ष करने वा स्वयं को सम्पन्न बनाने का - यह भी देख बापदादा खुश होते हैं। क्या थे और क्या बन गये - इस अन्तर को सदा स्मृति में रखते हुए सभी इसी ईश्वरीय नशे में रहते हैं। इसको देख बापदादा भी फखुर से कहते हैं - ‘‘वाह संगमयुगी बच्चे, वाह!'' इतने तकदीरवान जो अब लास्ट जन्म तक भी आपके तकदीर की तस्वीर मस्तक में महिमा द्वारा, मुख में गीतों द्वारा और हाथों से चित्र द्वारा, नयनों में स्नेह द्वारा तकदीर की तस्वीर खींचते रहते हैं। अब तक भी आप श्रेष्ठ आत्माओं के शुभ घड़ी को याद कर रहे हैं कि फिर से कब आयेंगे आह्वान की धूम मचाये हुए हैं। ऐसे तुम तकदीरवान हो जो स्वयं बाप भी आपके तकदीर के गुण गाते हैं। अन्तिम भक्त तो आपके चरणों को भी पूजते रहते हैं। सिर्फ आपसे क्या माँगतें है कि अपने चरणों में ले लो। इतनी महान आत्मायें हो, इसलिए बापदादा भी देख हर्षित होते हैं। सदा अपना ऐसा श्रेष्ठ स्वरूप , श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर स्मृति में रखो। इससे क्या होगा समर्थ स्मृति द्वारा, सम्पन्न चित्र द्वारा चरित्र भी सदा श्रेष्ठ ही होंगे। कहा जाता है - ‘जैसा चित्र वैसा चरित्र'। जैसी स्मृति वैसी स्थिति। तो सदा समर्थ स्मृति रखो तो स्थिति स्वत: ही समर्थ हो जायेगी। सदा अपना सम्पूर्ण चित्र सामने रखो जिसमें सर्वगुण, सर्व शक्तियाँ सब समाई हुई हैं। ऐसा चित्र रखने से स्वत: ही चरित्र श्रेष्ठ होगा। मेहनत करने की जरूरत ही नहीं होगी। मेहनत तक करनी पड़ती है जब मनन शक्ति की कमी होती है। सारा दिन यही मनन करते रहो, अपना श्रेष्ठ चित्र सदा सामने रखो तो मनन शक्ति से मेहनत समाप्त हो जायेगी। सुना भी बहुत है, वर्णन भी बहुत करते हो फिर भी चलते-चलते कभी-कभी अपने को निर्बल क्यों अनुभव करते हो, मेहनत अनुभव क्यों करते हो? मुश्किल है - यह संकल्प क्यों आता है? इसका कारण? सुनने बाद मनन नहीं करते। जैसे शरीर की शक्ति आवश्यक है, वैसे आत्मा को शक्तिशाली बनाने के लिए ‘मनन शक्ति' इतनी ही आवश्यक है। मनन शक्ति से बाप द्वारा सुना हुआ ज्ञान स्व का अनुभव बन जाता है। जैसे पाचन शक्ति द्वारा भोजन शरीर की शक्ति, खून के रूप में समा जाता है। भोजन की शक्ति अपने शरीर की शक्ति बन जाती है। अलग नहीं रहती। ऐसे ज्ञान की हर पाइंट मनन शक्ति द्वारा स्व की शक्ति बन जाती है। जैसे आत्मा की पहली पाइंट सुनने के बाद मनन शक्ति द्वारा स्मृति स्वरूप बन जाने कारण, स्मृति समर्थ बना देती है - ‘‘मैं हूँ ही मालिक''। यह अनुभव समर्थ स्वरूप बना देता है। लेकिन केसे बना? मनन शक्ति के आधार पर। तो आत्मा की पहली पाइंट अनुभव स्वरूप हो गई ना। इसी प्रकार ड्रामा की पाइंट - सिर्फ ड्रामा है, यह कहने वा सुनने मात्र नहीं लेकिन चलते-फिरते अपने को हीरो एक्टर अनुभव करते हो तो मनन शक्ति द्वारा अनुभव स्वरूप हो जाना यही विशेष आत्मिक शक्ति है। सबसे बड़े ते बड़ी शक्ति अनुभव-स्वरूप है।

अनुभवी सदा अनुभव की अथार्टी से चलते, अनुभवी कभी धोखा नहीं खा सकते। अनुभवी किसी के डगमग करने से, सुनी सुनाई से विचलित नहीं हो सकते। अनुभवी का बोल हजार शब्दों से भी ज्यादा मूल्यवान होता है। अनुभवी सदा अपने अनुभवों के खज़ानों से सम्पन्न रहते हैं। ऐसे मनन शक्ति द्वारा हर पाइंट के अनुभवी सदा शक्तिशाली, मायाप्रूफ, विघ्न प्रूफ, सदा अंगद के समान हिलाने वाला, न कि हिलने वाला होता। तो समझा अभी क्या करना है?

जैसे शरीर की सर्व बीमारियों का कारण कोई न कोई विटामिन की कमी होती है तो आत्मा की कमजोरी का कारण भी मनन शक्ति द्वारा हर पाइंट के अनुभव की विटामिन की कमी है। जैसे उसमें भी वैरायटी ए.बी.सी. विटामिन हैं ना। तो यहाँ भी किसी न किसी अनुभव के विटामिन की कमी है, कुछ भी समझ लो। ए आत्मा की विटामिन, विटामिन बी बाप की। विटामिन सी ड्रामा की, क्रियेशन वा सार्किल कहो। ऐसे कुछ भी बना लो। इसमें तो होशियार हो। तो चेक करो कौन से विटामिन की कमी है। आत्मा की अनुभूति की कमी है, परमात्म सम्बन्ध की कमी है, ड्रामा के गुह्यता के अनुभूति की कमी है। सम्पर्क में आने के विशेषताओं की अनुभूति की कमी है। सर्व शक्तियों के स्वरूप के अनुभूति की कमी है। और वही कमी मनन शक्ति द्वारा भरो। श्रोता स्वरूप वा भाषण करता स्वरूप - सिर्फ यहाँ तक आत्मा शक्तिशाली नहीं बन सकेगी। ज्ञान स्वरूप अर्थात् अनुभव स्वरूप। अनुभवों को बढ़ाओ और उसका आधार है मनन शक्ति। मनन वाला स्वत: ही मगन रहता है। मगन अवस्था में योग लगाना नहीं पड़ता लेकिन निरंतर लगा हुआ ही अनुभव करता। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। मगन अर्थात् मुहब्बत के सागर में समाया हुआ। ऐसे समाया हुआ जो कोई अलग कर ही नहीं सकता। तो मेहनत से भी छूटो। बाहरमुखता को छोड़ो तो मेहनत से छूटो। और अनुभवों के अन्तर्मुखता स्वरूप में सदा समा जाओ। अनुभवों का भी सागर है। एक दो अनुभव नहीं अथाह हैं। एक दो अनुभव कर लिया तो अनुभव के तालाब में नहीं नहाओ। सागर के बच्चे अनुभवों के सागर में समा जाओ। तालाब के बच्चे तो नहीं हो ना! यह धर्मपितायें, महान आत्मायें कहलाने वाले, यह हैं तालाब। तालाब से तो निकल आये ना। अनेक तालाबों का पानी पी लिया। अब तो एक सागर में समा गये ना।

ऐसे सदा समर्थ आत्माओं को, सदा सर्व अनुभवों के सागर में समाई हुई आत्माओं को, सदा अपना सम्पूर्ण चित्र और श्रेष्ठ चरित्रवान आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को , सदा अन्तर्मुखी , सर्व को सुखी बनाने वाली आत्माओं को, ऐसे डबल हीरो आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

पार्टियों से - सदा स्वयं बाप के समीप रत्न समझते हो? समीप रत्न की निशानी क्या होगी? समीप अर्थात् समान। समीप अर्थात् संग में रहने वाले। संग में रहने से क्या होता है? वह रंग लग जाता है ना। जो सदा बाप के समीप अर्थात् संग में रहने वाले हैं उनको बाप का रंग लगेगा तो बाप समान बन जायेंगे। समीप अर्थात् समान ऐसे अनुभव करते हो? हर गुण को सामने रखते हुए चेक करो कि क्या-क्या बाप समान है। हर शक्ति को सामने रख चेक करो कि किस शक्ति में समान बने हैं। आपका टाइटल ही है - मास्टर सर्वगुण सम्पन्न, मास्टर सर्व शक्तिवान। तो सदा यह टाइटल याद रहता है? सर्वशक्तियाँ आ गई अर्थात् विजयी हो गये, फिर कभी भी हार हो नहीं सकती। जो बाप के गले का हार बन गये उनकी कभी भी हार नहीं हो सकती। तो सदा यह स्मृति में रखो कि मैं बाप के गले का हार हूँ, इससे माया से हार खाना समाप्त हो जायेगा। हार खिलाने वाले होंगे,खाने वाले नहीं। ऐसा नशा रहता है? हनुमान को महावीर कहते हैं ना! महावीर ने क्या किया? लंका को जला दिया। खुद नहीं जला, पूँछ द्वारा लंका जलाई। तो लंका को जलाने वाले महावीर हो ना! माया अधिकार समझकर आये लेकिन आप उसके अधिकार को खत्म कर अधीन बना दो। हनुमान की विशेषता दिखाते हैं कि वह सदा सेवाधारी था। अपने को सेवक समझता था। तो यहाँ जो सदा सेवाधारी हैं वही माया के अधिकार को खत्म कर सकते हैं। जो सेवाधारी नहीं वह माया के राज्य को जला नहीं सकते। हनुमान के दिल में सदा राम बसता था ना। एक राम दूसरा न कोई। तो बाप के सिवाए और कोई भी दिल में न हो। अपने देह की स्मृति भी दिल में नहीं। सुनाया ना कि देह भी पर है, जब देह ही पर हो गई तो दूसरा दिल में कैसे आ सकता?

प्रवृत्ति में रहते भी अपने को ट्रस्टी समझो, ग्रहस्थी नहीं। गृहस्थी समझने से अगला पिछला बोझ सिर पर आ जाता। ट्रस्टी अर्थात् डबल लाइट। जब आत्मिक स्वरूप है तो ट्रस्टी, देह की स्मृति है तो ग्रहस्थी। गृहस्थी माना मोजमाया के जाल में फँसा हुआ, ट्रस्टी माना सदा हल्का बन खुशी में उड़ने वाला। ट्रस्टी अर्थात् माया का जाल खत्म।